- हिंदी गुरु

Search Bar

Ads Here

सोमवार, 19 अक्टूबर 2020

 


कबीर की साखियाँ संदर्भ-प्रसंगसहित व्याख्या

साईं इतना दीजिए, जामैं कुटुम समाय।
मैं भी भूखा रहूँ, साधु भूखा जाय॥ (1)

शब्दार्थ : साईं = स्वामी, भगवान। कुटुम = कुटुम्ब। समाय = भरण-पोषण हो जाए। साधु = अतिथि।

सन्दर्भ : प्रस्तुत साखी कबीरदास द्वारा रचितकबीर की साखियाँशीर्षक से ली गयी है।

प्रसंग : इसमें कवि ने भगवान से प्रार्थना की है कि हे भगवान! हमें इतना दे दो कि हमारा भली-भाँति गुजारा हो जाए।

व्याख्या : कबीरदास जी कहते हैं कि हे भगवान! आप हमें इतना भर दे दें जिसमें हमारे कुटुम्ब का भली-भाँति भरण-पोषण हो जाए। मैं भी भूखा रहूँ और मेरे घर पर जो भी साधु-संन्यासी आएँ, वे भी खाली हाथ लौटें।

विशेष :

1.    कवि ने मात्र कुटुम्ब भरण तक की सुविधा ही भगवान से माँगी है।

2.    दोहा छन्द।

दुर्बल को सताइए, जाकी मोटी हाय।
मरी चाम की स्वांस से, लौह भसम है जाय॥ (2)

शब्दार्थ :
दुर्बल = कमजोर व्यक्ति। चाम = चमड़े।

सदर्भ : प्रस्तुत साखी कबीरदास द्वारा रचितकबीर की साखियाँशीर्षक से ली गयी है।

 

प्रसंग : कबीर ने दुर्बल व्यक्ति को सताने का उपदेश दिया है।

व्याख्या : कबीरदास जी कहते हैं कि दुर्बल व्यक्तियों को मत सताओ। इनकी आहे बड़ी मोटी अर्थात् भारी होती हैं। एक उदाहरण देकर वे कहते हैं कि जब मरे हुए चमड़े से बनाई गई मसक की श्वांस से लोहा भी भस्म हो जाता है तो जीवित व्यक्ति की आहों से कितना अहित हो जायेगा, इसे अच्छी तरह सोच लो और दुर्बलों को मत सताओ।

विशेष :

1.    कवि ने दुर्बलों को सताने का उपदेश दिया।

2.    दोहा छन्द।

जाति पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान॥ (3)

शब्दार्थ :
मोल = मोल-भाव।

सन्दर्भ : प्रस्तुत साखी कबीरदास द्वारा रचितकबीर की साखियाँशीर्षक से ली गयी है।

प्रसंग : कबीरदास जी साधु संन्यासी की जाति पूछने और ज्ञान जानने की बात कहते हैं।

व्याख्या : कबीरदास जी संसारी मनुष्यों से कहते हैं कि हे मनुष्यो! तुम कभी भी किसी साधु-संन्यासी की जाति के बारे में मत पूछो। यदि तुम्हें पूछना ही है तो उससे उसके ज्ञान के बारे में जानकारी लो। एक उदाहरण देकर कबीर बताते हैं कि मोल-भाव तो तलवार का किया जाता है, म्यान को कौन पूछता है।

विशेष :

1.    गुणों को जानना चाहिए, जाति को नहीं।

2.    दोहा छन्द।

 

जाति हमारी आतमा, प्रान हमारा नाम।
अलख हमारा इष्ट है, गगन हमारा ग्राम॥ (4)

शब्दार्थ :
अलख = अदृश्य। इष्ट = भगवान। गगन = आकाश।

सन्दर्भ ; प्रस्तुत साखी कबीरदास द्वारा रचितकबीर की साखियाँशीर्षक से ली गयी है।

प्रसंग : इस साखी में कबीरदास जी अपना परिचय देते हुए कह रहे हैं।

व्याख्या : कबीरदास जी कहते हैं कि हमारी आत्मा ही हमारी जाति है, हमारा नाम ही हमारे प्राण हैं। अदृश्य अर्थात् दिखाई देने वाला निर्गुण निराकार ईश्वर ही हमारा इष्ट है और आकाश हमारा ग्राम है।
विशेष :

1.    कवि ने अपनी व्यापकता का परिचय दिया है।

2.    दोहा छन्द है।

कामी क्रोधी लालची, इन पै भक्ति होय।
भक्ति करै कोई शूरमाँ, जाति वरण कुल खोय॥ (5)

शब्दार्थ :
कामी = काम वासना में रत रहने वाला। जाति = जाति, कुल। वर्ण = वर्ण व्यवस्था। खोय = खोकर।

सन्दर्भ-: प्रस्तुत साखी कबीरदास द्वारा रचितकबीर की साखियाँशीर्षक से ली गयी है।

प्रसंग : इस छन्द में कबीरदास जी ने बताया है कि कामी-क्रोधी व्यक्तियों से ईश्वर की भक्ति नहीं हो सकती है।

व्याख्या : कबीरदास जी कहते हैं कि कामी, क्रोधी और लालची स्वभाव के व्यक्तियों से भगवान की भक्ति नहीं हो सकती है जो व्यक्ति जाति एवं वर्ण भूल जाता है, वही शूरमाँ होता है और वही भगवान की भक्ति कर सकता है।

विशेष :

1.    विषय-वासनाओं से मुक्त होकर ही भक्ति की जा सकती है।

2.    दोहा छन्द।

ऊँचै कुल का जनमियाँ, जे करणी ऊँच होइ।।
सोवन कलस सुरै भऱ्या, साधू निंद्या सोई॥ (6)

शब्दार्थ :
जनमियाँ = जन्म लेने वाला। करणी = कार्य। सोवन = सोने के। सुरै = मदिरा। भऱ्या = भरी हुई है। निंद्या = निंदा करता है। सोइ = उसकी।

सन्दर्भ : प्रस्तुत साखी कबीरदास द्वारा रचितकबीर की साखियाँशीर्षक से ली गयी है।

प्रसंग : कबीरदास जी कहते हैं कि ऊँचे कुल में जन्म लेने से कोई व्यक्ति ऊँचा नहीं होता है।

व्याख्या : कबीरदास जी कहते हैं कि ऊँचे कुल में जन्म लेने भर से कोई व्यक्ति ऊँचा नहीं हो जाता। यदि उसके कार्य ऊँचे नहीं हैं, तो वह कभी ऊँचा नहीं हो सकता है। ऊँचे अर्थात् श्रेष्ठ कार्य करने वाला व्यक्ति ही.ऊँचा होता है। वे उदाहरण देते हुए कहते हैं कि यदि सोने के कलश में मदिरा भरी हुई है, तो साधु लोग उस कलश की प्रशंसा करके निन्दा ही करेंगे।

विशेष :

1.    व्यक्ति अच्छे कामों से ऊँचा होता है, ऊँचे कुल में जन्म लेने से नहीं।

2.    दोहा छन्द।

तरवर तास बिलंबिए, बारह मास फलंत।
सीतल छाया गहर फल, पंधी केलि करत॥ (7)

शब्दार्थ :
तरवर = श्रेष्ठ वृक्ष। तास = उसी का। बिलंबिए = सहारा लीजिए। फलंत = फलता है। गहर = घने। पंषी = पक्षी। केलि = क्रीड़ाएँ।

सन्दर्भ : प्रस्तुत साखी कबीरदास द्वारा रचितकबीर की साखियाँशीर्षक से ली गयी है।

प्रसंग : कबीरदास जी ने ऐसे व्यक्ति का आश्रय लेने का उपदेश दिया है, जिससे हर व्यक्ति सुखी हो।

व्याख्या : कबीरदास जी तरुवर के माध्यम से उस श्रेष्ठ व्यक्ति का आश्रयं ग्रहण करने का उपदेश देते हैं कि उसी श्रेष्ठ वृक्ष का आश्रय लेना चाहिए जो बारह महीने फल देता हो, जिसकी छाया शीतल हो, जिसमें घने फल लगते हों और जिस पर बैठकर पक्षीगण अपनी क्रीड़ाएँ करते हों।

विशेष :

1.    सज्जन लोगों का आश्रय लेने की बात कही है।

2.    दोहा छन्द।

 

जब गुण कँगाहक मिलै, तब गुण लाख बिकाइ।
जब गुण कौं गाहक नहीं, कौड़ी बदले जाइ॥ (8)

शब्दार्थ :
गाहक = ग्रहण करने वाला, जानकार।

सन्दर्भ : प्रस्तुत साखी कबीरदास द्वारा रचितकबीर की साखियाँशीर्षक से ली गयी है।

प्रसंग : कवि कहता है कि गुणों का महत्त्व तभी तक है जब तक उसके ग्राहक मिलते हैं।

व्याख्या : कबीरदास जी कहते हैं कि जब गुण के ग्राहक मिल जाते हैं तो गुण लाख रुपये में बिकता है और यदि गुण के ग्राहक मिलें तो वह गुण कौड़ियों में बिक जाता है।

विशेष :

1.    गुण के ग्राहक का महत्व है।

2.    दोहा छन्द।

सरपहि दूध पिलाइये, दूधैं विष है जाइ।
ऐसा कोई नां मिलै, सौं सरपैं विष खाइ॥ (9)

शब्दार्थ :
सरपहि = साँप को। लै जाइ = हो जायेगा।

सन्दर्भ : प्रस्तुत साखी कबीरदास द्वारा रचितकबीर की साखियाँशीर्षक से ली गयी है।

प्रसंग : कवि कहता है कि सर्प को दूध पिलाने से कोई लाभ नहीं है, क्योंकि वह दूध भी विष बन जायेगा।

व्याख्या : कबीरदास जी कहते हैं कि सर्प को दूध पिलाने से कोई लाभ नहीं है क्योंकि सर्प के गले में जाकर दूध भी विष बन जायेगा। कबीर कहते हैं कि मुझे आज तक ऐसा कोई व्यक्ति नहीं मिला, जो सर्प के विष को खा जाये।

विशेष :

1.    साँप से आशय दुष्ट लोग हैं।

2.    दोहा छन्द।

करता करे बहुत गुण, आगुण कोई नांहि।
जे दिल खोजौं आपणौं, तो सब औगुण मुझ माहि॥ (10)

शब्दार्थ :
करता = कर्ता, सृष्टि का निर्माणकर्ता। केरे = तेरे। आगुण = अवगुण। आपणौ = अपना। मांहि = अन्दर।

सन्दर्भ : प्रस्तुत साखी कबीरदास द्वारा रचितकबीर की साखियाँशीर्षक से ली गयी है।

प्रसंग : कर्ता (भगवान) में गुण ही गुण होते हैं, अवगुण नहीं।

व्याख्या : कबीरदास जी कहते हैं कि कर्ता अर्थात् भगवान में केवल गुण ही गुण हैं, उनमें कोई भी अवगुण नहीं है। कबीर दास जी कहते हैं कि जब मैंने अपना दिल खोजा तो मैंने पाया कि सभी अवगुण मेरे अन्दर हैं।

विशेष :

1.    ईश्वर (कर्ता) की महत्ता का वर्णन तथा अपने अवगुणों का वर्णन कवि ने किया है।

2.    दोहा छन्द।


अगर आपको इसका वीडियो देखना है तो इधर

https://youtu.be/Rcdt7wHwPnM

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें